नपुंसक

बस थाने के सामने खड़ी थी, तालक और परिचालक अक तरफ खड़े बीड़ी के कश लगाते तमाशा देख रहे थे। सवारियों में से अधिकतर पुरुष थाने के भीतर जा चौके थे। जिन्हें भीतर जगह नहीं मिली वे बाहर खड़े बतिया रहे थे। औरतें बस के अन्दर ही बैठी अपने-अपने ज़ेवरों का हिसाब लगा रही थीं, किसी के गले की चेन गई थी तो किसी का मंगल सूत्र। किसी के झुमके तो किसी की अंगूठी।
हुआ यूँ कि देहरादून से दिल्ली जाने वाली बस, मुजफ्फरहंर के पास लूट ली गई थी। वे लड़के पिछले ही स्टाप से चढ़े थे और मौका देखकर चालक की खोपड़ी से रिवाल्वर सटाकर आराम से पूरी बस को लूटकर उतर गये। अट्ठारह से बीस साल की उम्र के इन लड़कों के सामने जिनकी घिघ्घी बंध गई थी, वही लोग कभी चालक को, कभी पुलिस को और कभी सरकार को गालियाँ देने लगे तो चालक ने बस को थाने के सामने ला खड़ा किया और उन्हें रिपोर्ट करने के लिये उकसाया।
बीतर गये लोगों में एक देहरादून हाईकोर्ट का वकील भी था। थानाध्यक्ष ने उसी से पूछा, "आपके कितने गये?"
"पाँच हज़ार"
" देखिए, मेरी जेब में इस समय सिर्फ तीन हज़ार हैं। आप इन्हें ले लीजिए, मुजरिम पकड़ते तो वक्त लगेगा। आप कहाँ झमेले में पड़ते फिरेंगे।"
" और बाकी लोग कहाँ जाएंगे?"
तुरन्त डीएसपी को फोन लगाया गया और डीअसपी साहब मौके पर पहुँच गये। किसी को हज़ार, किसी को 500 दे्कर विदा कर दिया गया। लोग चुपचाप बिना रपट लिखाए आकर बस में बैठ गए।

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