1952 के प्रारम्भिक महीने थे। मैं हल्द्वानी के ललित महिला विद्यालय में पढ़ रही थी। बरेली रोड के मुख़्तयार मुहल्ले से रेलवे रोड के (आज के ललित महिला इण्टर कालेज) ललित महिला विद्यालय तक पैदल जाने के लिए शायद 15 या 20 मिनट लगते थे। हमारे घर से विद्यालय के रास्ते में एक बड़ा-सा मैदान था जहाँ मंगलवार को बाजार लगा करता था। उस स्थान को आज भी मंगल पड़ाव ही कहा जाता है हालांकि न तो अब वहाँ बाजार लगता है और न ही वहाँ वह मैदान रह गया है। वहाँ पर भी अन्य स्थानों की तरह कंकरीट का जंगल खड़ा है। चार-चार पंक्तियों में दुकाने बन गई हैं, परन्तु मुझे आधी शताब्दि बाद भी अपना प्राथमिक विद्यालय जस का तस मिला तो मैं बस में से अपनी भतीजी को दिखाने लगी, ‘‘देख रुचि, यह मेरा स्कूल है।’’ सम्भवतया 2011/12 में विद्यालय तो वहाँ से अन्यत्र स्थानान्तरित कर दिया गया है परन्तु भवन अभी तक ज्यों का त्यों खड़ा है। इसी पाठशाला में मैंने कक्षा पाँच तक पढ़ा है, क्योंकि यह पाठशाला वहीं तक सीमित थी।
कक्षा छः के लिए मुझे ललित महिला विद्यालय में प्रवेश दिलाया गया और यही कक्षा छः मेरे लेखन का अंकुरण सिद्ध हुई। ललित महिला विद्यालय में उस समय हमें हिन्दी और गणित विषय पढ़ाने वाली चन्द्रकान्ता बहनजी नितांत सादगी की प्रतिमूर्ति थीं। वे सफेद सूती साड़ी पहनती थीं, हल्के-से नीले या काले बार्डर वाली सफेद साड़ी। वे बहुत कम मुस्कुराती थीं और हँसते तो शायद हमने उन्हें कभी देखा ही नहीं था। उन्हें हँसाने के लिए हम कक्षा की सारी लड़कियाँ तरह-तरह के प्रयास करतीं, क्योंकि वे कभी हमें मारती नहीं थीं, बस ज्यादा ही क्रोध आ गया तो डांटते हुए ‘अरे दुष्टाओ’ कह दिया और फिर, या तो मुस्कुरा देतीं या बहुत ही ज्यादा नाराज़ हुईं तो कक्षा से बाहर चली जातीं, रूठकर बैठ जातीं और हम उन्हें मनाते रहते। वह मान भी शीघ्र ही जाती थीं। जीवन के सत्तर पायदान पार करने के बाद अब मैं समझने लगी हूँ उनके न हँसने और सफेद सूती साड़ी पहनने के अर्थ और कारण।
दूसरी बहनजी थीं, पतली-दुबली धर्मा बहनजी। जिनकी गुलाबी प्रिंट रेशमी साड़ी याद है। उनसे हम लोग तरह-तरह के प्रश्न पूछते और वे हँसते हुए हमारे हर प्रश्न का उत्तर देतीं। एक थीं ‘कमला बिष्ट’ बहनजी। वे हमें गृहविज्ञान और भूगोल पढ़ाती थीं। गृहविज्ञान में हमें एक पुस्तक लगती थी, ‘हमारी वीरांगनाएँ’, जिसे हम कहानियाँ मानकर बहुत रुचिपूर्वक पढ़ते। कमला बहनजी बहुत ज्यादा गुस्सैल थीं और बात-बात पर उनके तमाचे खाना लड़कियों के भाग्य में लिखा था। तब आज की तरह बच्चों को मारना मना तो क्या हुआ, उल्टे हमारी माँएँ भी स्कूल आकर कहतीं, ‘लड़कियाँ अगर कुछ भी गलत करें तो आप इन्हें दो-चार लगा दिया करें। आखिर ये लड़कियाँ हैं, इन्हें पराए घर जाना है।’ सो! कमला बहनजी को तो मौका चाहिए था।
हमारी मुख्याध्यापिका अर्थात् आज की भाषा में कहें तो प्रिंसिपल थीं ‘माता जी’ ;नाम तो पता नहीं क्या था, पर उन्हें सभी माताजी ही कहते थे।द्ध छोटा-सा कद, आयु सम्भवतया 60 के आस-पास। सफेद खादी की साड़ी पहनतीं जिसका बार्डर हमेशा नीला ही रहता। कहा यह जाता था कि ललित महिला विद्यालय की संस्थापिका यही माताजी थीं और यह कि वे स्वतंत्रता सेनानी रही थीं। उनका बेटा था ललित कुमार, जिसके नाम पर उन्होंने इस विद्यालय की स्थापना की थी। उस समय इस विद्यालय में शायद मात्र आठ या दस कमरे थे। आगे काफी बड़ा खुला आँगन था और आँगन के चारों ओर कुछ क्यारियाँ। इन क्यारियों में कुछ न कुछ बोया जाता और हम लोग अर्थात् हर कक्षा की छात्राओं को प्रत्येक दिन एक पीरियड उन खेतों को देना होता। इन क्यारियों में हर तरह की मौसमी सब्जि़याँ बोई जाती थीं। क्यारियों के किनारे-किनारे फूल भी लगाए जाते, जो मुझे हमेशा ही अच्छे लगते थे।
इसी प्रांगण में प्रत्येक शनिवार को प्रातः हवन होता और आधा दिन अंताक्षरी, कविता पाठ और नाटक आदि किए जाते। गाने गाए जाते परन्तु इन गीतों में फिल्मी गीत कहीं नहीं होते, न ही अंताक्षरी में कोई संस्कार विहीनता दिखाई देती। या तो विद्यालय की किसी पुस्तक की कविताएँ अथवा रामायण की चैपाइयों के अंश, कबीर, रहीम और सूर आदि के पद गाए जाते।
ऐसे ही समय, एक कविता प्रतियोगिता हुई। प्रतियोगिता में कविता के लिए एक पंक्ति दी गई थी। प्रतियोगिता का आधार छः पंक्तियों की कविता में ‘टूट गए’ शब्द अवश्य होने चाहिए की शर्त थी। छात्राओं में बहुत उत्साह था। मेरी कक्षा की भी बहुत सारी लड़कियाँ कलम तोड़ प्रयास कर रही थीं। बहुत सारी लड़कियों को उनके घर के लोगों ने कविता लिखकर दे दी थी। बहुत सी छात्राओं ने कविता स्वयं लिखी और पढ़ी। मैंने भी लिखी, परन्तु मुझे न तो छंद का ज्ञान था और न ही मात्राओं का। मैं तो सुमित्रा नन्दन पंत, निराला, मैथिली शरण गुप्त, महादेवी आदि की कविताओं के बस अर्थ करना जानती थी जो हमें कक्षा में पढ़नी होतीं। बस, मन किया और लिख मारी कुछ अटपटी पंक्तियाँ,
‘‘मैं घर की मुण्डेर पर
चढ़कर कूदी
आँगन में तो
मेरे सैण्डल टूट गए।’’
सारी बहनजियों ने मुँह बिचकाया और मैं रुआँसी होकर मंच से उतर आई। मैं कक्षा में आकर अवश्य ही रोती परन्तु इतने में वहाँ कमला बहन जी न जाने क्यों आ गईं। उन्हें शायद मेरी हालत पर तरस आ रहा था और वे मेरे पास आकर बोलीं, ‘‘तुम्हें कोई अंक नहीं मिला न? अरे मुझे कहा होता तो मैं तुम्हें कविता लिखकर देती तो तुम्हें अवश्य पुरस्कार मिलता। पर नहीं, तुम क्यों कहोगी मुझसे? नाक नीची हो जाएगी न तुम्हारी? हेकड़ कहीं की।’’
हालांकि उन दिनों मेरे मुँह में ज़ुबान नहीं होती थी, क्योंकि पलटकर जवाब देने पर अच्छी-खासी पिटाई होती थी, परन्तु मैं आज भी उस बात पर हैरान हूँ कि कैसे मेरे मुँह से निकला, ‘‘मुझे उधार का कुछ नहीं चाहिए बहन जी। अगर मुझे कविता लिखनी होगी तो खुद ही लिखूँगी।’’ अभी मैं कुछ और कहती उससे पहले ही मुझे अपने दुःसाहस का पुरस्कार मिल गया, एक जोरदार थप्पड़ और इतने पर ही बस नहीं हुई, घर पहुँचती इससे पहले ही मेरी शिकायत घर पर पहुँच चुकी थी।
माँ ने यह कहकर स्वागत किया कि ‘‘आज अध्यापिका को जवाब दिया कल हमारे सामने मुँह खोलेगी और फिर सास के सामने। सास चुटिया उखाड़कर वापस पटक जाएगी। फिर लिखती रहना कविता।’’ कस कर पिटाई हुई और कविता लिखने का सारा बुख़ार उतर गया।
कक्षा छः के लिए मुझे ललित महिला विद्यालय में प्रवेश दिलाया गया और यही कक्षा छः मेरे लेखन का अंकुरण सिद्ध हुई। ललित महिला विद्यालय में उस समय हमें हिन्दी और गणित विषय पढ़ाने वाली चन्द्रकान्ता बहनजी नितांत सादगी की प्रतिमूर्ति थीं। वे सफेद सूती साड़ी पहनती थीं, हल्के-से नीले या काले बार्डर वाली सफेद साड़ी। वे बहुत कम मुस्कुराती थीं और हँसते तो शायद हमने उन्हें कभी देखा ही नहीं था। उन्हें हँसाने के लिए हम कक्षा की सारी लड़कियाँ तरह-तरह के प्रयास करतीं, क्योंकि वे कभी हमें मारती नहीं थीं, बस ज्यादा ही क्रोध आ गया तो डांटते हुए ‘अरे दुष्टाओ’ कह दिया और फिर, या तो मुस्कुरा देतीं या बहुत ही ज्यादा नाराज़ हुईं तो कक्षा से बाहर चली जातीं, रूठकर बैठ जातीं और हम उन्हें मनाते रहते। वह मान भी शीघ्र ही जाती थीं। जीवन के सत्तर पायदान पार करने के बाद अब मैं समझने लगी हूँ उनके न हँसने और सफेद सूती साड़ी पहनने के अर्थ और कारण।
दूसरी बहनजी थीं, पतली-दुबली धर्मा बहनजी। जिनकी गुलाबी प्रिंट रेशमी साड़ी याद है। उनसे हम लोग तरह-तरह के प्रश्न पूछते और वे हँसते हुए हमारे हर प्रश्न का उत्तर देतीं। एक थीं ‘कमला बिष्ट’ बहनजी। वे हमें गृहविज्ञान और भूगोल पढ़ाती थीं। गृहविज्ञान में हमें एक पुस्तक लगती थी, ‘हमारी वीरांगनाएँ’, जिसे हम कहानियाँ मानकर बहुत रुचिपूर्वक पढ़ते। कमला बहनजी बहुत ज्यादा गुस्सैल थीं और बात-बात पर उनके तमाचे खाना लड़कियों के भाग्य में लिखा था। तब आज की तरह बच्चों को मारना मना तो क्या हुआ, उल्टे हमारी माँएँ भी स्कूल आकर कहतीं, ‘लड़कियाँ अगर कुछ भी गलत करें तो आप इन्हें दो-चार लगा दिया करें। आखिर ये लड़कियाँ हैं, इन्हें पराए घर जाना है।’ सो! कमला बहनजी को तो मौका चाहिए था।
हमारी मुख्याध्यापिका अर्थात् आज की भाषा में कहें तो प्रिंसिपल थीं ‘माता जी’ ;नाम तो पता नहीं क्या था, पर उन्हें सभी माताजी ही कहते थे।द्ध छोटा-सा कद, आयु सम्भवतया 60 के आस-पास। सफेद खादी की साड़ी पहनतीं जिसका बार्डर हमेशा नीला ही रहता। कहा यह जाता था कि ललित महिला विद्यालय की संस्थापिका यही माताजी थीं और यह कि वे स्वतंत्रता सेनानी रही थीं। उनका बेटा था ललित कुमार, जिसके नाम पर उन्होंने इस विद्यालय की स्थापना की थी। उस समय इस विद्यालय में शायद मात्र आठ या दस कमरे थे। आगे काफी बड़ा खुला आँगन था और आँगन के चारों ओर कुछ क्यारियाँ। इन क्यारियों में कुछ न कुछ बोया जाता और हम लोग अर्थात् हर कक्षा की छात्राओं को प्रत्येक दिन एक पीरियड उन खेतों को देना होता। इन क्यारियों में हर तरह की मौसमी सब्जि़याँ बोई जाती थीं। क्यारियों के किनारे-किनारे फूल भी लगाए जाते, जो मुझे हमेशा ही अच्छे लगते थे।
इसी प्रांगण में प्रत्येक शनिवार को प्रातः हवन होता और आधा दिन अंताक्षरी, कविता पाठ और नाटक आदि किए जाते। गाने गाए जाते परन्तु इन गीतों में फिल्मी गीत कहीं नहीं होते, न ही अंताक्षरी में कोई संस्कार विहीनता दिखाई देती। या तो विद्यालय की किसी पुस्तक की कविताएँ अथवा रामायण की चैपाइयों के अंश, कबीर, रहीम और सूर आदि के पद गाए जाते।
ऐसे ही समय, एक कविता प्रतियोगिता हुई। प्रतियोगिता में कविता के लिए एक पंक्ति दी गई थी। प्रतियोगिता का आधार छः पंक्तियों की कविता में ‘टूट गए’ शब्द अवश्य होने चाहिए की शर्त थी। छात्राओं में बहुत उत्साह था। मेरी कक्षा की भी बहुत सारी लड़कियाँ कलम तोड़ प्रयास कर रही थीं। बहुत सारी लड़कियों को उनके घर के लोगों ने कविता लिखकर दे दी थी। बहुत सी छात्राओं ने कविता स्वयं लिखी और पढ़ी। मैंने भी लिखी, परन्तु मुझे न तो छंद का ज्ञान था और न ही मात्राओं का। मैं तो सुमित्रा नन्दन पंत, निराला, मैथिली शरण गुप्त, महादेवी आदि की कविताओं के बस अर्थ करना जानती थी जो हमें कक्षा में पढ़नी होतीं। बस, मन किया और लिख मारी कुछ अटपटी पंक्तियाँ,
‘‘मैं घर की मुण्डेर पर
चढ़कर कूदी
आँगन में तो
मेरे सैण्डल टूट गए।’’
सारी बहनजियों ने मुँह बिचकाया और मैं रुआँसी होकर मंच से उतर आई। मैं कक्षा में आकर अवश्य ही रोती परन्तु इतने में वहाँ कमला बहन जी न जाने क्यों आ गईं। उन्हें शायद मेरी हालत पर तरस आ रहा था और वे मेरे पास आकर बोलीं, ‘‘तुम्हें कोई अंक नहीं मिला न? अरे मुझे कहा होता तो मैं तुम्हें कविता लिखकर देती तो तुम्हें अवश्य पुरस्कार मिलता। पर नहीं, तुम क्यों कहोगी मुझसे? नाक नीची हो जाएगी न तुम्हारी? हेकड़ कहीं की।’’
हालांकि उन दिनों मेरे मुँह में ज़ुबान नहीं होती थी, क्योंकि पलटकर जवाब देने पर अच्छी-खासी पिटाई होती थी, परन्तु मैं आज भी उस बात पर हैरान हूँ कि कैसे मेरे मुँह से निकला, ‘‘मुझे उधार का कुछ नहीं चाहिए बहन जी। अगर मुझे कविता लिखनी होगी तो खुद ही लिखूँगी।’’ अभी मैं कुछ और कहती उससे पहले ही मुझे अपने दुःसाहस का पुरस्कार मिल गया, एक जोरदार थप्पड़ और इतने पर ही बस नहीं हुई, घर पहुँचती इससे पहले ही मेरी शिकायत घर पर पहुँच चुकी थी।
माँ ने यह कहकर स्वागत किया कि ‘‘आज अध्यापिका को जवाब दिया कल हमारे सामने मुँह खोलेगी और फिर सास के सामने। सास चुटिया उखाड़कर वापस पटक जाएगी। फिर लिखती रहना कविता।’’ कस कर पिटाई हुई और कविता लिखने का सारा बुख़ार उतर गया।