सन् 1947

बात 1947 के शुरू के दिनों की है। हमारे घर के बाहरी कमरे में एक महात्मा रहते थे, जिन्हें सब अवधूत जी कहते थे और इस बाहरी कमरे को बैठक। अवधूत जी पूरे शरीर पर राख मले रहते और सिर पर जटाओं का बड़ा-सा जूड़ा। सिर्फ लाल रंग का एक लँगोट पहनते थे। उनके न घर में आने का समय था, न जाने का। पता नहीं वे कब घर आते, कब घर से जाते। बस कभी-कभी माँ से खाने को कुछ माँग लेते। यह याद है कि मुहल्ले की औरतें जब उनके पाँव छूतीं तो वे उन्हें बहुत बुरा-भला कहते थे।
परन्तु मुझे यह तो अच्छी तरह याद है कि हल्की सर्दी थी, क्योंकि सुबह-सवेरे, नाश्ते के बाद मैं माँ के साथ छत पर थी। मेरी माँ गुलाबी रंग का रेशमी सूट पहने, अपने बालों का पानी तौलिए से झाड़ रही थी। पास ही पड़ी बान की खाट पर उसका स्वेटर रखा हुआ था, जिसे वह बाल झाड़ कर पहनने वाली थी। तभी हमने देखा, सीढि़यों से धड़धड़ाते हुए अवधूत महात्मा जी छत पर चढ़ आए। वह बहुत उतावली में थे। माँ उन्हें इस हालत में देख कर हड़बड़ा गई, क्योंकि वे कभी-भी घर के भीतर नहीं आते थे ‘‘क्या हुआ अवधूत जी?’’ माँ ने प्रश्न कर दिया।
‘‘भक्तिन वीरां बाई, मेरी बात ध्यान से सुन! यहाँ पर बहुत जबरदस्त मार-काट मचने वाली है। आदमी ऐसे काटे जाएँगे जैसे कसाई बकरे काटता है, हो सके तो तू अपने बच्चों को बचा ले। जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी यहाँ से निकल जाओ।’’ वह एक ही साँस में बोल गए।
मेरी माँ! जिन्हें हम माताजी कहा करते थे, हक्की-बक्की उनका मुँह देख रही थी। उसे इस बात में कुछ भी झूठ इसलिए नहीं लगा, क्योंकि नित्य ही देहाती क्षेत्रों से उजड़ कर आने वाले लोग रावलपिण्डी शहर में आ रहे थे। पूरे शहर की तरह हमारे घर के बाहर भी, सड़क के किनारे, चैबीसों घण्टे चूल्हा जलता रहता था और उस पर या तो मेरी माँ के दहेज के बड़े पतीले में दाल चढ़ी रहती या मुहल्ले की औरतें बड़ा सा तवा रखकर रोटियाँ बनाती रहतीं। मन्दिरों और गुरुद्वारों में तो लंगर लगे ही हुए थे।
रात को माँ ने पिता जी से कहा, ‘‘क्यों न हम हरिद्वार हो आएँ?’’ माँ को पता था कि पिताजी जनसंघ के कर्मठ कार्यकर्ता हैं और वे पलायन की बात को कभी नहीं मानेंगे।
फिर पता नहीं माँ ने पिताजी को किस तरह से मनाया कि हमारा अम्बाला जाना तय हो गया, जहाँ मेरे ताऊजी रहते थे। उन्हीं दिनों गाँव से मेरी दादी मय मेरे तीनों चाचा और एक अदद बुआ के हमारे घर, रावलपिण्डी शहर में आ गईं। दादा जी गाँव ही में रह गए थे। बड़ी हवेली और पैलियों ;खेतोंद्ध का मोह उनसे नहीं छूटा। हमारे गाँव में भी दंगे भड़क रहे थे और मेरी बुआ जवानी की दहलीज पर पाँव रख चुकी थी। दादी ने रावलपिण्डी शहर को सुरक्षित समझा। बड़े चाचा सोमप्रकाश जी ने हमारी डेयरी सँभालने की बात को मान लिया। इस समय हमारी डेयरी में 25 भैंसे, 8 गउएँ और चार घोडि़याँ थीं जिन्हें हमारे मुसलमान नौकर देखा करते थे।
उन दिनों डेयरी बहुत सूनी लगती थी, पिताजी दोनों मुसलमान नौकरों के परिवारों को अपनी बग्घी में बैठाकर खुद गाड़ी हाँककर उनके मुहल्ले में छोड़ आए थे, किन्तु दोनों नौकर डेयरी के एक कमरे में ही थे। इतने पशु देखने के लिए मेरे पिता और चाचा कम पड़ते। नौकरों को आतंकवादियों से बचाने के लिए उन्हें दिनभर ताले में रखा जाता और अँधेरा होने के बाद बाहर निकाला जाता ताकि कोई उन्हें देख न ले। 

अब औरतें तो औरतें ही थीं। अपने पतियों की कुशल के लिए परेशान औरतों ने एक दिन एक मुसलमान युवक को वहाँ भेज दिया। मैं भी पिताजी के साथ भैंसों को पानी पिला रही थी। मैं नल पर बाल्टियाँ भर रही थी, मेरे पिता और चाचा उन्हें लेजाकर भैंसों के सामने रख देते। वह युवक कोठरी के दरवाजे पर कान लगाकर दोनों नौकरों से बात कर रहा था यह तो मैंने देखा था, उसने पंडितों की तरह धोती पहन रखी थी और उसके माथे पर तिलक भी था। उसके पूछने पर दोनों नौकरों ने कहा था कि ‘‘हमारी औरतों से कहना कि किसी तरह की कोई चिन्ता न करें हम यहाँ एकदम ठीक हैं। सेठ जी हमारा बहुत ध्यान रखते हैं।’’ फिर पिताजी ने मुझे वहाँ से भगा दिया।
मैं अकेली घर आ गई। फिर पता नहीं क्या हुआ कि अचानक ही बाहर सड़क से शोर सुनाई दिया, हम लोग जल्दी से दरवाजे बंद करके छत पर चढ़ गए। छत से हमने देखा एक हथठेले पर एक आदमी के ऊपर बोरियाँ डालकर ढक दिया गया था फिर भी खून से सनी बोरियों से उसके अधकटे हाथ-पैर लटक रहे थे। कुछ लोग शव के साथ रोते-पीटते चल रहे थे। साथ में घूँघट में दो औरतें भी थीं। बाद में पता चला कि वह तो वही मुसलमान युवक था जो हमारे नौकरों की खबर लेने आया था। किसी ने उसे पहचान लिया था तो वह कैसे बचता? लेकिन पुलिस सक्रिय हो गई थी। पुलिस को आता देखकर जल्दी से दो सरदार युवकों को महिलाओं वाले कपड़े पहनाकर शव का दाह संस्कार कर दिया गया और पुलिस चुपचाप वापस चली गई बिना कोई खोजबीन किए। जनता में रोष इसी बात का था कि यदि कोई हिन्दु मारा जाता है तो पुलिस चुपचाप वापस चली जाती है और यदि कोई मुसलमान मारा जाता है तो पुलिस एकदम सक्रिय होती है और त्वरित कार्यवाही की जाती है। यह भेदभाव क्यों? परन्तु कोई उत्तर किसी के पास नहीं था।

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