नींद तो नींद है

जी हाँ! नींद तो नींद है, वह भी बचपन की और मेरी नींद तो पूरे परिवार में प्रसिद्ध थी। मेरी माँ जगाते-जगाते तंग आ जाती तो ‘‘अरी कुम्भकरण, उठती है कि भगाऊँ तेरी नींद?’’ कहती तो मैं झूमती-झूमती खटिया से पैर नीचे उतारती। अरे साहब! नींद तो नींद है। बड़े होने पर पता चला कि शायरों ने भी इसीलिए लिखा था कि ‘नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है, उनकी आग़ोश में सर हो यह ज़रूरी तो नहीं।’’
मेरी नींद का कारण उम्र भी हो सकती है और थकान भी परन्तु नींद के उस आनन्द का तो जवाब ही नहीं जिसके कारण एक रात मेरी माँ को घर के अन्दर आने के लिए सैकड़ों पापड़ बेलने पड़े थे।
हुआ यूँ कि उन दिनों हम जगाधरी के तीन मंजि़ल के एक ऐसे मकान में रहते थे, जिसमें और भी बहुत सारे किराएदार थे। बीच के तल पर मालिक मकान खुद रहते थे, नीचे हमारे साथ एक दूसरा परिवार था और ऊपर पता नहीं कितने पर कुछ लोग रहते ज़रूर थे। मेरा वास्ता तो सिर्फ अपने काम से रहता था। माँ का स्वभाव बेहद कठोर और कड़वा। छोटे बहन और भाई, मैं ज्येष्ठ होने के दण्ड स्वरूप घर के सारे काम के प्रति उत्तरदायी थी। दिन भर काम। तब शायद मैं आठ या नौ साल की रही होऊँगी।
स्कूल का काम तो ज्यादा नहीं होता था, बस पतली-पतली चार किताबें, एक तख़्ती और स्लेट। वापस घर लौटकर भी मुझे कुछ करना नहीं होता। जो काम दिया जाता यदि स्कूल में नहीं कर पाई तो दूसरे दिन मार खाना तय रहता। पर मुझे नहीं याद कि मैंने स्कूल में पढ़ाई के लिए कभी मार खाई हो। हाँ, शैतानी की कसम नहीं खा सकती। मेरी माँ को आम औरतों की तरह साधु-संतों के प्रवचन सुनने का बहुत चस्का था। रामचरित मानस तो उसने हमें भी कण्ठस्थ करा रखा था। माँ का कहना था, जो रामचरित मानस को कण्ठस्थ कर ले, वह हिन्दी में कभी मार नहीं खा सकता।
हाँ तो बात नींद की हो रही थी। हमारी गली के बाहर वाले मन्दिर में उन दिनों कोई कथा चल रही थी। गली की सब स्त्रियों ने मिलकर कथा में जाने की योजना बनाई। मेरे पिताजी उन दिनों बाग़ में सोते थे, शायद कोई गाय ब्याने वाली थी इसलिए मेरी माँ को भी मौका मिल गया कथा में जाने का। रात को घर छोड़ने पर कोई खतरा तो नहीं था, परन्तु रात के बारह-एक बजे जब औरतें घर वापस आएँगी तो दरवाजा कौन खोलेगा? बहुत से बच्चे तो प्रसाद के लाालच में माओं के साथ जाने को तैयार हो गए परन्तु मुझे तो नींद प्यारी थी।
सब ने मेरी ओर उंगली उठाई, ‘‘है न लड़की। खोल देगी दरवाजा।’’ परन्तु मेरी माँ कैसे यकीन कर लेती? ‘‘इसकी बात मत करो। पूरी कुम्भकरण है। एक बार सो गई तो फिर भगवान ही आकर इसे जगाए तो जगाए।’’
माँ की बात सुनकर मुझे ताव आ गया, ‘‘नहीं, मैं जाग जाऊँगी। खोल दूँगी दरवाजा। जाओ सब। मैं खटोली दरवाजे के साथ मिलाकर लगाऊँगी। नींद कैसे नहीं खुलेगी?’’ और मैंने आँगन में पड़ी छोटी खटोली घसीटकर दरवाजे के साथ लगा ली और अन्दर से दरवाजे की कुण्डी बंद करके सो गई।
सूरज की किरणे पड़ने के साथ जब मेरी नींद खुली तो मुझे स्कूल के लिए देर हो जाने का भय लगा परन्तु रात की घटना की कोई याद नहीं आई। तभी माँ की आवाज़ आई, ‘‘उठ गई कुम्भकरण की औलाद? अब मैंने देखा, मेरी खटोली दरवाजे के साथ बदस्तूर लगी हुई थी। अब मुझे रात की पूरी घटना याद तो आ गई, परन्तु माँ से पूछने का मेरा साहस नहीं हुआ कि वह अन्दर कैसे आई क्योंकि घर में मेरे अलावा दो छोटे भाई-बहन थे जो अभी भी आराम से सो रहे थे और माँ कमर पर दोनों हाथ रखे मेरे सामने खड़ी थी।
स्कूल में ऊपर वालों की बेटी ने बताया, (जो बड़ों के साथ कथा सुनने गई थी), ‘‘तेरी माँ ने बहुत देर तक जोर-जोर से दरवाजा पीटा पर तू नहीं उठी। हम सब ऊपर अपने घर आ गए और तेरी माँ के लिए सोचने लगे। फिर हमने तुझे बहुत आवाजें दीं तब भी तू नहीं उठी। फिर हमने तेरे ऊपर पानी की भर-भर कर तीन बाल्टिया फेंकीं पर तू तब भी नहीं उठी। (अब मुझे याद आया कि सुबह मेरा फ्राॅक भी थोड़ा-थोड़ा गीला था।) फिर हमने अन्दर से मोटी रस्सी निकाली और मेरा भाई रस्सी कमर में बाँधकर नीचे उतरा और अन्दर से दरवाजा खोलकर तेरी माँ को अन्दर जाने का रास्ता बनाया। पर तेरी नींद है कि......?’’ आज भी कभी याद आती है तो....।

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