वे अवधूत महात्मा

घर से बेघर, डेढ़ वर्ष परवाणु (हिमाचल प्रदेशद्) रहने के बाद मैंने कम्प्यूटर सीखने के लालच से खतौली में डेरा डाला। वहाँ का लेखक वर्ग मुझे जानता तो था क्योंकि खतौली के एक प्रैस से मैं कुछ पुस्तकें छपवा चुकी थी। अब वहाँ जाकर बसने के बाद तो वहाँ का लेखक वर्ग मेरा मुरीद बन गया। शायद मुझे मेरी वरिष्ठता का लाभ मिल रहा था। प्रातः भ्रमण पर निकले ये युवा कवि मेरे पास आकर चाय पीते, फिर शाम के सात बजते ही इनकी बैठक मेरे घर में लगने लगती। इसका एक बड़ा कारण मेरे पास पर्याप्त स्थान का होना था। शाम को कविता गोष्ठी जमती और गीतों-ग़ज़लों पर बहस होती। उनके भीतर झाँक कर अशु(ियाँ निकाली जातीं, इस तरह एक स्वच्छ साहित्यिक वातावरण का सृजन वहाँ अपने आप हो गया।
एक दिन खतौली के शृंगार रस के गीतकार अनिल रितुराज ने कहा, ‘‘बहन जी, चलिए आपको शुक्रताल ले चलूँ। वहाँ एक सन्यासिनी माताजी हैं, उन्हें कुण्डिलिनी शक्ति पर अद्भुत अधिकार है परन्तु वे कविता भी लिखती हैं। आप उनसे मिलकर खुश होंगी।’’ मैंने अनिल को बताया कि ‘‘मैं पहले भी शुक्रताल गई हूँ परन्तु तब मैं मात्र पाँच वर्ष की ही थी।’’
स्वामी राकेश राका, अजय और अखिलेष भी वहाँ बैठे थे। उन लोगों ने मेरा मज़ाक भी बनाया, ‘‘अरे बहिन जी! क्यों मजाक करो, तब का क्या आपको याद होगा अब तक?’’
‘‘पता नहीं।’’ मैं भी अनमनी-सी ही थी, फिर भी स्वामी राकेश राका, अजय और अनिल के साथ मैं शुक्रताल के लिए चल पड़ी। रास्ते में कुछ दुकानें, कुछ गाँव अवश्य बस गए थे फिर भी लगता था, शेष कुछ भी नहीं बदला है। वैसे ही कच्चे और ऊबड़-खाबड़ रास्ते थे जैसे सन् 1947 में रहे थे। हाँ अब बैलगाडि़यों के स्थान पर टूटी-फूटी बसें और एक छोटा टैम्पू जिसे वहाँ ‘जुगाड़’ कहा जाता है, चलते हैं। यहाँ आपको बताती चलूँ कि इस स्थान के लिए मेरठ और मुजफ्फ़रनगर के बीच में से रास्ता निकलता है।
शुक्रताल के मुख्य मन्दिर के पास पहुँचकर पहला धक्का जो मुझे लगा, वह था गंगा का वहाँ से ग़ायब होना। मेरे मुँह से अचानक ही निकला, ‘‘अरे, गंगा तो यहाँ थी, वह कहाँ गई?’’ सब हँसने लगे।
स्वामी राकेश राका हँसते हुए बोला, ‘‘बहन जी, पचास सालों में गंगाजी क्या आपको वहीं मिलेंगी, जहाँ आपने छोड़ी थीं? पर मान गए हम आपकी स्मृति को। हमने भी बड़ों से यही सुना है, कि किसी समय गंगाजी मन्दिर के साथ ही बहती थीं। (राकेश की आयु मुश्किल से 35/40 के आस-पास होगी) वो देखिए, सामने का जंगल पार करके वहाँ उधर।’’ मैं पुराने दिनों को याद कर रही थी। मुझे फिर वही सब याद हो आया जब हमारा परिवार पहली बार यहाँ आया था।
रावलपिण्डी वाले हमारे घर के बाहर वाला कमरा हर समय खुला रहता था। उसमें जो अवधूत महात्मा जी रहते थे वे सम्भवतया मुजफ़्फ़र नगर ;उत्तर प्रदेशद्ध के आस-पास के किसी गाँव के मूल निवासी थे इसलिए वे हमें लेकर इसी ओर आए थे। मैं यह भी सोच रही थी कि मुझे इतना सब कुछ कैसे याद है जैसे कल की ही बात हो। एकदम शीशे की तरह साफ़।
रावलपिण्डी से निकलने के बाद से ही हम लोग महात्मा जी के दिशा-निर्देश से चल रहे थे। हमारे साथ बड़ों के नाम पर मेरे माता-पिता और मेरी बड़ी मौसी ही थे, बाकी सब किशोर, युवा और बच्चे थे जिनमें तीन बहन-भाई हम और दो-दो बेटे मेरी दो मौसियों के। मेरे मामा, बड़ी और दूसरे नम्बर की मौसी शान्ति के दो बेटे जो लगभग 14/15 वर्ष के रहे होंगे। शायद इससे भी एक-दो साल कम। एक मौसी शायद 16 साल की थी और एक मामा से भी छोटी। सभी बड़े-बूढ़े नाना-नानी और दादा-दादी, सीमा के उस पार ही रह गए थे परन्तु अभी देश के विभाजन की विधिवत घोषणा नहीं हुई थी। बहरहाल हम बच्चे, कुछ सोते, कुछ जागते दो बैलगाडि़यों पर सवार आनन्द से झूमते हुए एक संध्या को शुक्रताल पहुँच गए।
हमारे लिए बैलगाडि़यों का सफ़र किसी अजूबे से कम नहीं था, क्योंकि हमने बैलगाड़ी में कभी सफर नहीं किया था। हमारे गाँव-नगर में बैलगाडि़याँ सिर्फ गाँव से अनाज और बाकी सामान ढोने के काम आती थीं। असमान खट्टड़ की तो याद नहीं लेकिन हरिपुर (ननिहाल) हम रेल में ही जाते थे। अम्बाला से भी हम रेल में ही आए थे। फिर देखी फटीचर बसें, उस के बाद शुक्रताल की कच्ची सड़क। बैलगाड़ी की ढिचूं-ढिचूं चाल हमें एक नया आनन्द दे रही थी। कभी हम सारे बच्चे कूद कर दौड़ने लगते और कभी बैलगाड़ी में फिर से सवार हो जाते।
मुझे बिल्कुल आज ही की तरह याद है कि जहाँ हमारी बैलगाडि़याँ रुकीं वहाँ पर मात्र एक झोंपड़ी थी। बड़े बरगद वाला चबूतरा तब भी इतना ही ऊँचा था, जितना आज है। अन्तर आया तो इतना कि आज उसी बरगद का घेरा बहुत बढ़ गया है और चबूतरा पक्का हो गया है। इतना ही नहीं, अब वहाँ पर ढेरों मन्दिर भी बन गए हैं।
हाँ, तो मैं कह रही थी! झोंपड़ी से थोड़ी ही दूरी पर गंगा बह रही थी। मैं, जो लड़की अस्मान खट्टड़ में हर्रो नाले का थोड़ा सा पानी देखकर ही मचल-मचल उठती थी, एक साथ इतना सारा पानी देखकर खुशी से नाचने ही लगी। मेरी माँ ने मुझे जोर से डाँट दिया, ‘‘झल्ली (पागल)हो गई है क्या? चुपचाप बैठ।’’ पर बैठें कहाँ? वहाँ पर तो सिवाय सोंधी धरती के बैठने के लिए और कुछ था ही नहीं, कहाँ बैठते?
उस रात हमें ‘मलका मसूर’ की लाल दाल और उबले हुए चावल खाने को मिले जो हम लोगों ने कभी देखे भी नहीं थे। मेरी माँ और बड़ी मौसी ने वह भोजन नहीं किया। बड़े होने पर पता चला कि हमारे घरों में मसूर की दाल, माँस के समान त्यज्य थी और उबला चावल? उसका तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता था। अब बड़े लोग खाएँ या न खाएँ, उससे बच्चों को तो कुछ लेना-देना नहीं रहता। हम लोगों ने और मेरे मामा आदि किशोरों ने भरपेट खाया।
ख़ैर, भोजन के बाद जब लोग सोने के लिए उस झोंपड़ी के भीतर गए तो वहाँ धरती पर बिछे पुआल के ऊपर एक बड़ी-सी मैली-कुचैली दरी ही बिछी हुई थी और ओढ़ने के लिए उसी तरह के मैले कम्बल और उसके साथ ही ढेरों मच्छर। हमारे नाक सिकोड़ने पर बड़ों की घूरती आँखों ने हमें चुपचाप सोने के लिए विवश कर दिया।
बचपन की नींद, सुबह सवेरे हंगामे से खुली। बाहर बहुत शोर हो रहा था। अवधूत जी अपने पैर छूने वाली स्त्रियों को गालियाँ देते तो हमने बहुत बार देखे थे परन्तु इस तरह बिफरते हुए उन्हें हमने कभी नहीं देखा। बाद में पता चला कि जिस वटवृक्ष के नीचे शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित को भागवत पुराण की कथा सुनाई थी, वह किसी ने आधा काट दिया था।
वह अवधूत जी, जो कभी औरतों को अपने निकट नहीं आने देते थे, इस समय हमारे घर की दोनों महिलाएँ बार-बार उनके पैर पकड़ कर कह रही थीं, ‘‘अवधूत जी, इन लोगों ने जो गलती की है उसके लिए इन्हें माफ कर दो। ज़रा सोचो हम भी तो आप के साथ हैं आप हमारी तकलीफ़ का भी तो सोचो।’’ पर उनका क्रोध तो घटने के स्थान पर बढ़ता ही जा रहा था। वे लगातार बटवृक्ष काटने वाले की सात पीढि़यों को याद कर रहे थे। क्या कह रहे थे यह तो याद नहीं। बस इतना याद है कि कई-कई लोग मिलकर उन्हें पकड़ रहे थे पर वे बार-बार उनसे खुद को छुड़ा लेते।
बहुत मनाने के बाद भी क्रोध में बिफरे महात्मा जी ने हरहराती गंगा के पानी में छलांग लगा दी, चारों तरफ हाहाकार मच गया। गंगा में तब बहुत पानी था और पलपल बढ़ भी रहा था, परन्तु मेरे पिताजी भी बहुत अच्छे तैराक थे। आव देखा न ताव, कूद कर महात्मा जी का पीछा किया और उन्हें गंगाजी से बाहर निकाल लाए। महात्मा जी भी अच्छे तैराक थे। पिताजी को उन्हें पकड़ने के लिए बहुत श्रम करना पड़ा, परन्तु आखिरकार वे सफल हो ही गए। बाहर आकर उन्होंने महात्मा जी के पैर पकड़ लिए, फिर उनके पास बैठकर शान्ति से उन्हें समझाया कि ‘आप हमें यहाँ लाकर क्या अकेला छोड़ना चाहते हैं? हम चले जाएँ तो आप स्वतंत्र होकर जो आपको उचित लगे वह निर्णय लीजिए।’
महात्मा जी उनकी बात मान गए। उसके बाद पता नहीं क्या हुआ, परन्तु फिर हमने महात्मा जी को नहीं देखा।

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